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एक रंग से
तस्वीर नहीं बनती,
हर तस्वीर में
सब रंग भी
नहीं समाते।
पर निरंतर रंग बदलती इस प्रकृति की तरह खुले प्रांगण में मुझे सीखना है ग्रहण करना दुःख और सुख दोनों को एक ही रस, रंग आमंत्रण से ।
मौसम
गहरी, हरी घास
रहती है
सिर्फ़ एक मौसम
के लिए।
सूखकर
पीली हो गई,
रोती है- त्राहि त्राहि
इंतजार में
मदद को।
एक बारिश को
एक और मौसम को
एक और कारण
जीवन को आगे
रंगने का।
एक बार और,
एक बार फ़िर.
कर्म
नित्य प्रतिदिन
अँधेरा सुबह का
पीछा करता है।
हर काली रात का
एक सुबह से मिलन
सुनिश्चित है,
प्राकृतिक है।
फिर कैसी यह बेचैनी
और सोच
और अलगाव सा
ठहराव।
क्यों न लगें हम
सुकर्म में,
सत्कर्म में?
अनवरत
फूलों की सुगंध,
झरने का संगीत,
लहरों के थपेड़े,
समुन्दर के किनारे
सब अनंत,
अनवरत.
सहस्त्राब्दियों से,
जो गुजर गयी हैं,
सहस्त्राब्दियों तक
जो अभी आनी हैं-
अनंत।